Source: – Swarjya Magazine.
मनुष्य चिरकाल से ईश्वर को अपने हृदय में वास करने के लिए प्रार्थना करता आया है । परंतु आदि शंकराचार्य ने इसको ईश्वर के प्रति एक उपकार कहने का साहस किया । शंकराचार्य जयंती के उपलक्ष्य में जो कि पिछले सप्ताह बीती है आइए इस दर्शिनिक के विचारों के बारे में चिंतन करते हैं। शंकराचार्य एक प्रथम श्रेणी के कवि भी हैं जिनको संस्कृत के महान कवियों में गिना जाता है।
पर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि शंकराचार्य एक आदर्श रूप हैं जिसमें सनातन धर्म का सार समाया हुआ है। उनकी कृतियाँ एक ओर एक स्वस्थ शंकावाद को दर्शित करती है तो वहीं वे अनुभव को विश्वास से अधिक प्राथमिकता देती हैं। वे धार्मिक ग्रंथो के अद्ध्ययन को ना तो आवश्यक मानते हैं ना ही सम्पूर्ण। वे कर्मकांडों को स्थान तो देते हैं पर साथ ही उनकी सीमाओं के बारे में चेतावनी भी देते हैं। वे यह भी नहीं कहते की सिर्फ़ एक मार्ग ही सबके लिए सही मार्ग है। आज के संसार में जब धार्मिक ग्रंथो और व्यक्ति विशेष के अपमान की लेकर हत्याएँ हो रही है, शंकराचार्य एक ऐसी समझ रखते हैं जिसका दूसरे धर्मों में अभाव है। यहाँ तक कि भारत के दर्शनशास्त्रियों में भी इस समझ का अभाव है। आइए हम उनके विवेक चूड़ामणि के एक श्लोक की ओर देखें:
अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला।
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला॥
शास्त्रों का अध्ययन तब तक व्यर्थ है जब तक कि सर्वोच्च सत्य ज्ञात न हो।
शास्त्रों का अध्ययन तब भी व्यर्थ है जब सर्वोच्च सत्य ज्ञात हो गया हो।।
यह कहने पर उस काल में व्याप्त परम्पराओं के अनुसार तो शायद शंकराचार्य का सर कलम किया जाना चाहिए था क्योंकि उन्होंने एक प्रकार की ईश्वर निंदा की थी। परंतु हमने उनको आचार्य की श्रेणी में ला कर विराजमान किया। यह एक नयी बात नहीं थी; सनातन धर्म की यह मान्यता रही है कि धर्म ग्रंथो का उदेश्य यही है कि उनके परे देखा जाए। यहाँ तक कि गीता भी वेदों की त्रुटियों की खुल कर बात करती है।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ||
अनभिज्ञ व्यक्ति मधुर भाषा में वेदों की प्रशंसा करता है।
और दावा करता है कि “इनमे बहुत गहरी बातें कही गयीं हैं”।।
यह ऐसा प्रतीत होता है कि यह रिचर्ड डवाकिंस ने कहा होगा! कृष्ण आगे कहते हैं:
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।
जितना कि एक कुएँ का महत्व जल प्रलय में होता है।
उतना ही वेदों का महत्व उस व्यक्ति के लिए है जिसे सच की अनुभूति हो चुकी है।।
प्रश्न करना और उससे सत्य की खोज करना एक बहुत बड़ी स्वतंत्रता है। यहाँ तक चार्वको के सम्प्रदाय ने भी वेदों के कर्मकांडो को आड़े हाथों लिया है। चार्वको के संप्रदाय को कम जाना जाता है परंतु उनको इस निंदा हेतु कोई दंड नहीं मिला।
पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति |
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मात् न हिंस्यते ||
त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्ड-धूर्त-निशाचराः ।
जर्भरी-तुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम् ॥
यदि एक पशु जिसकी एक यज्ञ में आहुति दी गयी हो जो कि स्वर्ग जाता है,
तो फिर आहुति देने वाला अपने पिता की आहुति क्यों नहीं देता?
तीन वेदों के रचनाकर्ता भांड, धूर्त और निशाचार थे।
ध्यान करो कि ‘जर्भरी’, ‘तुरफरी’ जैसे शब्द इन पंडितो के ही थे।।
(यह दो अटपटे से शब्द ऋग संहिता से लिए गए हैं)
इतने तीखे व्यंग करने पर भी ना तो चार्वको का घेराव हुआ और ना ही किसी ने उनको बिना किसी शर्त के क्षमा माँगने को बाध्य किया। यह प्रक्रिया भी एक मान्य दर्शिनिक मार्ग था।
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यात न कौशलम् ।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ।।
वाक पटुता, शब्दों पर महारथ
और शास्त्रों पर कौशल;
इनसे अपना पेट तो भरा जा सकता है
परंतु इनसे मुक्ति नहीं मिलती।
यह स्पष्ट है कि शंकराचार्य के काल में धर्म एक प्रकार का व्यवसाय भी था। पर शंकराचार्य को यह स्वीकार्य नहीं था। मेरे प्रिय कवि भरथरि ने भी यह भावना नीति सतक में अभिव्यक्त की है।
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रियाविर्भमैः।
मुक्तवैकं भवदुःखभाररचनाविध्वंसकालानलं
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः ||
वेदों, स्मृतियो, पुराणों और शास्त्रों की
इतनी महत्ता क्यों?
और यह कर्मकांडो को लेकर उतावलापन क्यों?
ये स्वर्ग की प्राप्ति नहीं कराते,
ये मात्र स्वयं के अंदर एक संसार में ले जाते हैं
जिससे जीवन की पीड़ा कम हो जाती है
शेष समस्त एक प्रकार का व्यवसाय ही है।
भरथरि के शब्दों में एक ऐसा आकर्षण है कि वह आपको उनकी ओर खींच लेता है और आप मात्र उनके शब्दों से उन पर विश्वास करने लग जा जाते हैं। १५०० वर्ष पूर्व ऐसी रचना करने के उनका नमन। (यह रचना शंकराचार्य से भी पूर्व की गयी थी)
पुनः शंकराचार्य की एक रचना ;
पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा |
आरोग्यसिद्धिर्दृष्टाऽस्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ||
एक रोगी व्यक्ति औषधि से स्वस्थ होता है,
क्या वह रोग रहित होने हेतु एक अन्य व्यक्ति को औषधि लेने के लिए प्रतिनिधि बना सकता है?
अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तितः |
न स्नानेन न दानेन प्राणायमशतेन वा ||
सत्य को तर्क से जाना जा सकता है
और बुद्धिमान व्यक्ति के शब्दों से।
ना कि स्नान, दान अथवा प्राणायाम के एक शतक से।
यदि शंकराचार्य आज के युग में जन्मे होते तो संभवतः उनको संशयवादी माना जाता। शंकराचार्य का विवेक में दृढ़ विश्वास था जो कि मानव जाति की समझने और परखने की शक्ति है। विवेक चूड़ामणि में कर्मकांडो की कड़ी निंदा करने पर भी शंकराचार्य ने कर्मकांडो की आवश्यकता को समझा। बच्चे सामान्यतः अपनी उँगलियों का प्रयोग कर के अंकों को जोड़ा करते हैं परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि दो अंको का जोड़ उँगलियो से परिभाषित है। उँगलियाँ प्रयोग करने का मूल उद्देश्य यह है कि उनके ऊपर निर्भरता एक समय के पश्चात समाप्त हो जाए। शंकराचार्य को वास्तविक शिकायत उनसे है जो कभी उँगलियाँ गिनने से ऊपर नहीं उठ पाते हैं। अन्यथा उन्होंने स्तोत्र काव्य की रचना नहीं की होती।
हमें उस काल के वातावरण को भी सराहना चाहिए जिसमें एक परिपक्वता के साथ शंकराचार्य की प्रतिभा को सराहा गया। शंकराचार्य एक स्थान पर कहते हैं:
अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषतः |
उपाया देशकालाद्याःसन्त्यस्मिन्सहकारिणः ||
फलसिद्धि प्रत्यार्थी की योग्यता पर निर्भर करती है
काल, स्थान एवं अन्य साधन एक सहायक मात्र हैं।
परंतु, यदि शंकराचार्य उस काल में कहीं और जन्मे होते तो संभवतः तलवार या विष से मौत के घाट उतर दिए जाते। रोम के साम्राज्य के पतन के बाद सारे विश्व में भारत ही एक ऐसा स्थान था जहाँ इस प्रकार की स्वतंत्रता थी। रोमन साम्राज्य के १५०० वर्षों के पश्चात, जब चर्च और राज्य के मामले अलग हुए, तब जाकर यह स्वतंत्रता पुनः प्राप्त हुई। हमारे समाज में धर्मसंस्थानो एवं राज्य के मामले सदियों से अलग रहे हैं जिनको श्रुति एवं स्मृति में विभक्त किया गया है। हमारे पास एक ओर तो श्रुति होती थी जो कि हमारी आस्था के मूलग्रंथ थे और दूसरी ओर लगातार संशोधित होने वाले नियम जिनको कि स्मृति कहा जाता था। हमारी प्राचीनकालीन धर्म निरपेक्षता के कारण ही सनातन धर्म को समकालीन भीम राव अम्बेडकर की भैमि स्मृति को स्वीकार करने में कोई रुकावट नहीं होती। अन्य धर्म अभी तक आस्था और विधिनियम के अंतर्द्वंद से परे नहीं आ पाते।
वह स्वर्णिम काल जिसे हमें पुनः लाना है वह न तो उड़नखटोलो का है, ना परखनली में जन्मे शिशुओं का है और ना ही परमाणु तकनीक का है। हमें वास्तव में मुक्त विचारों और पारदर्शिता की भावना को वापस लाना है। आदि शंकराचार्य उस भावना के एक महान दूत थे। यह भावना ही सनातन धर्म की मूल प्रेरणा स्त्रोत है शेष, शंकराचार्य के शब्दों में, सन्त्यस्मिन्सहकारिणः – अर्थात मात्र सतही है।
सनातन शब्द की उत्त्पति सना से हुई है जिसका मूलभाव है निरंतर, प्राचीन इत्यादि। शब्द सनातन स्वयं बहुत पुराना है और उसके रूप दूसरी भाषाओं में भी पाए जाते हैं। उदाहरण स्वरूप अंग्रेज़ी भाषा का शब्द सीनियर। सीनेटर और सेनिल शब्द भी लेटिन भाषा के शब्द सेनेक्स से आते हैं जिसका अर्थ होता है वृद्ध व्यक्ति। ऐसा प्रतीत होता है कि सांसदो की औसत आयु में २००० वर्षों कोई परिवर्तन नहीं आया।
सुहास महेश भारतीय विज्ञान संस्थान से पूर्वस्नातक हैं। दिन में भौतिक शास्त्र में लीन रहने वाले सुहास रात्रि में भाषा के लिए समय निकाल लेते हैं। उनकी अन्य रूचियाँ कर्नाटिक संगीत, इलेक्ट्रॉनिक्स और इतिहास में हैं।