स्वामी रामानंद ने “वैष्णव मताब्ज भास्कर” में लिखा हैं :
प्राप्तम पराम सिद्धधर्मकिंचनो जानो
द्विजातिरछां शरणम हरीम व्रजेत
परम दयालु स्वगुणानपेक्षित
क्रियाकलापादिक जाती बन्धनं
सिद्धि प्राप्ति के लिए धन का कोई महत्त्व नहीं है, जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह किसी भी जाती, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो, हरी के शरण में जाने का अधिकारी है I कमर्काण्ड और जाती बंधन का कोई अर्थ ही नहीं है I
आगे देखिये वह क्या कहतें है I
वो कहतें हैं कि पंचायुध चिन्ह से युक्त कोई भी व्यक्ति जिसके शरीर पर पंचायुध में से किसी एक आयुध का निशान हैं, वह साक्षात विष्णु का रूप है I वह पवित्र से पवित्र व्यक्ति को पावन कर सकता है I
तो क्या स्वामी जी शक्त-अशक्त, संपन्न-विफन्नं, शिक्षित- निरक्षर, ब्राह्मण-शूद्र, राजा- रैंक, चांडाल, सबके लिए उन्होंने द्वार नहीं खोले हैं? कहाँ से उन्हें यह कहा जाता हैं कि ब्राह्मण वादी है ?
सबसे जो महत्वपूर्ण बात हैं, उनके जीवन में, जो उन्होंने कर के दिया, भक्ति काल में, वह यह कि एक देश जो पथ दलित हो चूका था, सांस्कृतिक, धार्मिक तौर पर जिसका विश्वास जा चूका था, उस विश्वास को वापस लौटाया I पथित और परभौम हिन्दू जाती का गौरव लौटाया I और इसका नतीजा यह हुआ के, उनके बाद भक्ति धारा, जो है, वह उत्तर में, पश्चिम में, पूरब में राजस्थान में उधर गुजरात में, असम में, बंगाल में, ओडिसा में भक्ति आंदोलन की धारा बहने लगी और छोटी-छोटी जातियों में कथित तौर पे जो छोटी जाती के लोग थे, वहां और वह, लोक भाषा में साहित्य रचा जाने लगा, जो की बहुत दूर गामी साबित हुआ I भक्ति आंदोलन को नया जीवन मिल गया I